Essay On Pandit Madan Mohan Malviya In Hindi – मदन मोहन मालवीय – (1861-1946) “हम धर्म को चरित्र-निर्माण का सीधा मार्ग और सांसारिक सुख का सच्चा द्वार समझते हैं। हम देश-भक्ति को सर्वोत्तम शक्ति मानते हैं जो मनुष्य को उच्चकोटि की निःस्वार्थ सेवा करने की ओर प्रवृत्त करती है” – मालवीय जी । यह सोच थी महान आत्मा की तो आये आज हम उनके जीवन के बारे में जानते है ।
Essay On Pandit Madan Mohan Malviya In Hindi – मदन मोहन मालवीय
अनेक महापुरुषों ने भारतवर्ष को अपने श्रेष्ठ कार्यों से गौरवान्वित किया है । उन्ही में से एक महापुरूष, मदन मोहन मालवीय थे। अंग्रेज उनकी तीव्र बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करते थे। अपने जीवन-काल में पत्रकारिता, वकालत, समाज-सुधार तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले मदन मोहन मालवीय जी इस युग के आदर्श पुरुष थे । उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिए तैयार करने की थी, जो देश का मस्तक गौरव से ऊचा कर सकें।
मदन मोहन मालवीय का जन्म भारत के उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद शहर में २५ दिसम्बर १८६१ को एक साधारण से परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था । क्युकी ये लोग मालवा के मूल निवासी थे, इसलिए मालवीय कहलाए । मालवीय जी ने सन् 1893 में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की ।
‘‘वकालत के क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी सफलता चौरी चौरा कांड के अरोपियो को फाँसी से बचा लाने की थी। । चौरी चौरा कांड में 170 भारतीयों को फाँसी की सजा सुनाई गई, परन्तु मदन मोहन जी के बुद्धि-कौशल और योग्यता से 151 लोगों को फाँसी से छुड़ा लिया गया । देश में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इस अद्भुत केस की ख्याती फैल गई।
राष्ट्र की सेवा के साथ-साथ नवयुवकों के चरित्र निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना भी की । ’’मालवीय जी का विश्वास था कि राष्ट्र की उन्नति तभी संभव है, जब वहाँ के निवासी सुशिक्षित हों । बिना शिक्षा के मनुष्य पशु माना जाता है । वह नगर की गलियों तथा गाँवों में शिक्षा के प्रचार में जुटे थे । वे जानते थे की व्यक्ति अपने अधिकारों को तभी समझ सकता है, जब वह शिक्षित हो । संसार के जो राष्ट्र आज उन्नति के शिखर पर हैं, वे शिक्षा के कारण ही हैं ।
ऐसा कहा जाता है कि मदनमोहन मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प जब कुंभ मेले में आयी जनता के बीच दोहराया तब वहीं एक वृद्धा ने मालवीय जी को इस कार्य के लिए सर्वप्रथम एक पैसा चंदे के रूप में दिया था । विश्वविद्यालय के निर्माण के समय मदन मोहन जी के जीवन में एक खास घटना हुई । जब दान के लिये वह हैदराबाद के निजाम के पास गये तो निजाम ने मदद करने से साफ इंकार कर दिया । मगर मालवीय जी हार कहा मानने वाले थे। वो उचित क्षणं का इंतजार कर रहे थे।
इत्तफाक से उसी समय एक सेठ का निधन हुआ । शव-यात्रा में घर वाले पैसों की वर्षा करते हुए चले जा रहे थे । यह देखकर मालवीय जी को एक उपाय सुझा और वो भी शव-यात्रा में शामिल हो गये और पैसा बटोरने लगे । उनको ऐसा करते देख सभी को आश्चर्य हुआ और एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया कि आप ये क्या कर रहे हैं । ऐसा सुनते ही मालवीय जी ने कहा “भाई क्या करु ? तुम्हारे निजाम ने तो कुछ भी देने से इनकार कर दिया है और जब मै खाली हाथ बनारस जाऊंगा तो लोगों के पूछने पर कि मै हैदराबाद से क्या लाया तो क्या कहूँगा कि खाली हाँथ लौट आया ? भाई निजाम का दान नहीं तो शव-विमान का ही सही ।
यह बात जब निजाम को पता चली वो बहुत शर्मिदा हुआ और महामना से माफी माँगते हुए विश्वविद्यालय के लिये काफी दान दिया । ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि मालवीय जी के मृदव्यवहार एवं दृणइच्छा शक्ती का ही परिणाम है, काशी हिंदू विश्वविद्यालय । विश्व में अपनी श्रेष्ठ पहचान लिये काशी हिन्दु विश्वविद्यालय भारत का गौरव है।
मालवीय जी संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता थे। उनका जीवन विद्यार्थियों के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत था । जनसाधारण में वे अपने सरल स्वभाव के कारण प्रिय थे और कोई भी उनके साथ बात कर सकता था । मानों जैसे वे उनके पिता, बन्धु या मित्र हों ।
महामना जी के जीवन की एक घटना आपको बताना चाहेंगे – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ ही समय बाद, अध्यापक उद्दंड छात्रों को उनकी गलतियों के लिए आर्थिक दंड दे दिया करते थे परन्तु छात्र उस दंड को माफ कराने मदन मोहन जी के पास पहुंच जाते और महामना उन्हें माफ भी कर देते थे । यह बात शिक्षकों को अच्छी नहीं लगती थी और वह मालवीय जी के पास जाकर बोलते, ‘महामना, आप उद्दंड छात्रों का आर्थिक दंड माफ कर उनका मनोबल बढ़ा देते हैं । इससे उनमें अनुशासन हीनता बढ़ती है । आप अनुशासन बनाए रखने के लिए उनके दंड माफ न करें।’
मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनीं और फिर बोले, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का आर्थिक दंड लगाया गया था । आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन खरीदने के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता मै । इस दंड की पूर्ति किस प्रकार मैंने की यह याद करके मेरे हाथ स्वयं छात्रों के प्रार्थना पत्र पर माफ़ी लिख देते हैं । शिक्षक स्तब्द हो गए ।
गाँधीजी भी मालवीय जी को नवरत्न कहते थे और अपने आप को उनका पुजारी । महामना जी, को छात्रों के साथ तो लगाव था ही पर इसके अलावा विश्वविद्यालय से भी बहुत लगाव था । एक बार की बात है कि, महामना जी, छात्रावास का निरीक्षण कर रहे थे तभी उन्होने देखा कि एक छात्र ने दिवार के कोने में कुछ लिख हुआ था । उन्होंने उसे समझाया – “ मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति जितनी ममता और लगाव है उतना ही मेरे विश्वविद्यालय की प्रत्येक ईंट से भी है । मैं आशा करता हुँ कि भविष्य में तुम ऐसी गलती कभी नहीं करोगे । उसके बाद महामना जी ने अपनी जेब से रूमाल निकालकर दिवार को साफ कर दिया । विश्वविद्यालय के प्रति मालवीय जी के दृष्टीकोण को जानकर छात्र लज्जा से झुक गया ।
देखने वाली बात है कितनी शालीनता से महामना जी ने उस छात्र को बिना सजा दिये उसके हृदय में सभी के प्रति आदर का भाव जगा दिया । यदि आज हम मालवीय जी के आचरण को अपने जीवन में आपना लें तो स्वयं के साथ समाज को भी सभ्य और सुन्दर बना सकते हैं ।
मदन मोहन मालवीय जी के सामान रामकृष्ण परमहंस और शिवाजी का भी भारतीय संस्कृती में विषेस स्थान रहा है ।